दुबले-पतले से लड़के ने जो जवाब दिया उसे सुनकर वहां मौजूद हर शख्स चौंक गया। मनोज पाण्डेय ने कहा, ‘मुझे परमवीर चक्र चाहिए।’

“अगर अपना लक्ष्य पाने से पहले मौत आई तो कसम से मैं मौत को भी मौत की नींद सुला दूंगा।“
ऐसे पराक्रमी विचारों की मिसाल शूरवीर शहीद कैप्टेन मनोज पाण्डेय जिन्होंने अपनी बहादुरी की कलम से फतेह की एक और बेमिसाल तारीख लिख दी। कारगिल की वो बुलंद चोटियां आज भी गवाह हैं जिनको भारतीय वीरों ने अपने लहू से खींच कर तिरंगे की आन, बान और शान को सदैव रोशन रखा।
कैप्टेन मनोज पाण्डेय जिन्होंने अपने साहस का परिचय देते हुए कारगिल की लड़ाई में भारत भूमि की रक्षा हेतु अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। उत्तरप्रदेश के सीतापुर से आए बहादुर कैप्टेन मनोज पाण्डेय का सपना ही परमवीर चक्र पाना था। जिसके लिए वो सेना में भर्ती हुए थे।

विषय
प्रारम्भिक जीवन
बुद्धि, कौशल व तर्क के गुणों से परिपूर्ण सीतापुर जिले के रुधा गांव में जन्में मनोज बचपन से ही काफी समझदार व सुलझे हुए थे। घर की आर्थिक स्थिति को देखते हुए वो कभी किसी बात के लिए ज़िद नहीं करते थे। बचपन में खिलौने के नाम पर उन्होंने अपने लिए केवल एक बांसुरी खरीदी थी यहाँ तक की घर वाले उन्हें जो पैसे स्कूल आने जाने के किराए के लिए देते थे वो उन्हें भी बचा लेते थे।
‘मुझे परमवीर चक्र चाहिए।’
एक सिपाही बनने का ज़ज्बा उनके अंदर बचपन से ही था और इसी का परिणाम था कि उनकी मेहनत और प्रदर्शन को देखते हुए 1990 में उत्तर प्रदेश निदेशालय के जूनियर डिवीजन एनसीसी का सर्वश्रेष्ठ कैडेट उन्हें चुना गया था। इंटर की पढ़ाई पूरी करने के बाद मनोज ने एनडीए की परीक्षा पास की और एडमिशन के लिए मनोज पांडेय को SSB के इंटरव्यू को भी पास करना था जिसमें उनसे इंटरव्यू पैनल ने पूछा कि ‘आर्मी क्यों जॉइन करना चाहते हो? एक सामान्य से दिखने वाले दुबले-पतले से लड़के ने जो जवाब दिया उसे सुनकर वहां मौजूद हर शख्स चौंक गया। मनोज ने कहा, ‘मुझे परमवीर चक्र चाहिए। अधिकारियों ने पूछा पता है ना, परमवीर चक्र कब और किसे मिलता है तो उन्होंने कहा, जी हाँ सर लेकिन मैं कोशिश करूंगा इस सम्मान को जीते जी पा सकूँ।
गोरखा रेजिमेंट
अपनी ट्रेनिंग के बाद मनोज पांडे 11 गोरखा रायफल्स रेजिमेंट की पहली वाहनी के अधिकारी बने। उन्होंने हमेशा अपनी पोस्टिंग ऐसी जगहों पर ली जहाँ ज्यादा जोखिम हो और काम करने में हिम्मत दिखानी पड़े। जब उनकी बटालियन को सियाचिन में तैनात होना था, तब उन्होंने खुद अपने अधिकारी को पत्र लिखकर सबसे कठिन दो चौकियों बाना चौकी या पहलवान चौकी में से एक दिए जाने की मांग की और बाद में लंबे समय तक 19 हजार 700 फुट की ऊंचाई पर पहलवान चौकी पर पूरे जोश और बहादुरी के साथ वे डटे रहे।
शहादत
साल 1999 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जहां अमन और भाईचारे की पहल कर भारत से लाहौर के लिए बस सेवा शुरू कर बस लेकर रवाना हुए थे। वहीं पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान ने बगैर किसी आभास के अपने सैनिकों को एलओसी पार भारत की सीमा के अंदर भेज दिया था। पाकिस्तान करगिल जंग की पूरी तैयारी कर चुका था। सर्दियों की चरम पर प्रशिक्षित कमांडोस को जिहादी जामा ओढ़ा कर भारत की सरहद के पार भेजना पकिस्तान के नापाक इरादों को साफ़ कर रही थी। इस युद्ध की बड़ी चुनौतियों में से एक कठिन चुनौती खालूबार जीतने की थी जिसको फ़तेह करने के लिए कमर कस कर कैप्टन मनोज कुमार पांडे अपनी 1/11 गोरखा राइफल्स की अगुवाई करते हुए दुश्मन से लड़े और आखिर में मात्रभूमि को अपने प्राणों को अर्पित कर रणभूमि में तिरंगा लहराया।
‘मेरे सैनिक मेरे बच्चे जैसे हैं’
उनकी माँ बताती हैं कि एक बार उन्होंने कहा था कि तुम तो अधिकारी हो तुम्हारी कमान में सैनिक रहते हैं तो जब भी लड़ाई पर जाना हो तो अपने सैनिकों को आगे भेज देना तुम नहीं जाना, तो इस पर कैप्टेन मनोज पाण्डेय ने अपनी माँ को जो उत्तर दिया वो वाकई सराहनीय था उन्होंने कहा माँ अगर कभी युद्ध में तुम्हें और मुझे जाना हो तो तुम आगे किसे भेजोगी मुझे या स्वयं जाओगी, तो माँ ने कहा मैं जाउंगी। माँ की बात सुनते ही मनोज ने कहा, तो माँ ये सैनिक मेरे बच्चे जैसे हैं इन्हें मैं आगे कैसे भेज सकता हूँ। मनोज पाण्डेय एक अच्छे बेटे, एक अच्छे सैनिक तो थे ही, साथ ही उनमें बेहतरीन नेतृत्व का कौशल भी था।

दरअसल गोरखा रेजीमेंट के लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे की पोस्टिंग सियाचिन में थी जिसके बाद वो छुट्टियों पर अपने घर जाने की तैयारी में थे लेकिन अचानक 2 जुलाई की रात उनके बहादुर कंधो पर एक बड़े ऑपरेशन की कमान सौंपी गई। लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे को खालुबार पोस्ट फ़तेह करने की जिम्मेदारी मिली और पूरे जोश व जूनून के साथ कैप्टेन मनोज रात के अंधेरे में अपनी टुकड़ी के साथ दुश्मन पर हमले के लिए निकल पड़े।
युद्ध का मैदान
पहाड़ों की उंचाई में छिपे दुश्मन ऊँचाई पर बैठ कर नीचे के हर एक मूवमेंट पर नजर रखे हुए थे और भारतीय सैनिकों के सामने कई समस्याएं थी। पहाड़ों में युद्ध के समय कई दिक्कतें जो दुश्मन की तरह ही होती हैं सबसे पहले तो उंचाई फिर 20-25 किलो भारी बंदूकें लेकर चढ़ना और उस पर हर 2-3 मिनट में दुश्मन एलुमिनेटिंग राउंड के बम फेंक कर उजाला कर देते थे जिसमें दिन की तरह उजाला हो जाता था। कारगिल की इस बेहद मुश्किल जंग में भी मनोज पाण्डेय पूरे जोश के साथ अपनी टुकड़ी को लेकर आगे बढ़ते रहे।
पाकिस्तानी सेना को भी मनोज पांडे के मूवमेंट का पता चल गया था और उन्होंने ऊंचाई से फायरिंग शुरु कर दी थी। लेकिन फायरिंग की परवाह किये बिना मनोज काउंटर अटैक करते हुए और हैंड ग्रेनेड फेंकते हुए दुश्मन के हर वार का सामना करते रहे और दुश्मन सैनिकों की लाशें बिछाते हुए आगे बढ़ रहे थे। कैप्टेन मनोज पाण्डेय ने गोलियों से छलनी शरीर के साथ अकेले ही दुश्मन के 4 बंकरों को उड़ाया था और शहीद होते हुए भी उनके आखिरी शब्द अपने सैनिकों के लिए यही थे, कि छोड़ना नहीं।
शहादत ने जवानों के रक्त में भरा उबाल
मनोज पांडे जी की शहादत से उनके जवान दुखी तो थे ही लेकिन उनके रक्त में जो उबाल आया, उससे वो पूरी दृढ़ता और बहादुरी के साथ दुश्मन पर टूट पड़े और विजय प्राप्त करके ही लौटे।
मात्र 24 वर्ष की छोटी सी उम्र में मनोज कुमार पांडे देश के समक्ष अपने पराक्रम, वीरता और हिम्मत की मिसाल कायम कर गए। कारगिल की इस जंग में हमने लगभग 527 जवानों को खोया था। देश के इन वीरों का भारत माँ के प्रति जो समर्पण था वो सदैव इतिहास में उनकी वीरता को अमर बनाये रखेगा।
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ए सरजमी ए हिंदुस्तान, तेरे इन जां निसार जांबाजों, शहीदों और मुहाफिज़ों को सलाम है, सलाम है, सलाम है।